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About Us

ASI has its Epigraphy wing divided into two constituents. Arabic and Persian Branch located at Nagpur in Maharashtra State and the other one i.e. Sanskrit and Dravidian Branch located at Mysore in Karnataka State. Mysore Branch has further two zonal offices stationed at Chennai in the south and at Lucknow in the north. Both the Branches i.e. Nagpur and Mysore have All India Jurisdiction.

The Epigraphy Branch at Nagpur in fact deals with Arabic and Persian inscriptions, representing the Muslim dynasties which had a sway over the Indian subcontinent. We get inscriptions in Arabic, Persian, lately in Urdu and also in other regional languages in the form of bilingual or trilingual records.

इस्लामी ख़त्ताती

पुरालेख शाखा, अरबी और फारसी शिलालेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण


फ़न-ए-ख़त्ताती या सुलेखन कला को इस्लामी कलाओं में बडा महत्व हासिल है । इस्लाम में जानदारों की तस्वीर और मूर्ती बनाना या और किसी रूप में चित्रण करना हराम (वर्जित) है । इसलिये मुसलमान फ़नकारों का पूरा ध्यान ख़त्ताती की ओर आकर्षित हो गया और इस फ़न के विकास के सफ़र में एक समय एैसा आया जब मध्यकालीन इतिहास में अरब, र्इरान, मध्य एशिया, अफ्रीका, हिन्दुस्तान बलिक सारे इस्लामी जगत में इस कला के उल्लेख के बिना सांस्कृतिक इतिहास अधूरा समझा जाने लगा ।

मध्यकाल के भारत को गर्व प्राप्त है कि उसने न केवल इस कला को अपनाया बलिक इसकी महत्वपूर्ण सेवा के साथ-साथ इसमें उल्लेखनीय योगदान भी किया ।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण सन 2011 मे अपनी स्थापना की 150 वीं वर्षगांठ मना चुका है। इन 150 सालों में स्मारकों के संरक्षण, पुरातातिवक उत्खनन आदि के अतिरिक्त अरबी व फ़ारसी शिलालेखों के अध्यन में वर्णनीय खोज की गर्इ । यह शिलालेख हमारे इतिहास का विश्वसनीय और समय के साथ नष्ट न होने वाले स्त्रोत हंै । यह शिलालेख न केवल राजनैतिक इतिहास की घटनाओं की पुष्टी करते हैं, नये तथ्य उजागर करते हंै बलिक भाषा साहित्य एवं कलाओं में विकास के भी प्रमाण उपलब्ध कराते हैं ।

भारतीय उप-महाव्दीप से हमें 12 वीं से 19 वीं शताब्दी तक के हज़ारों अरबी-फ़ारसी शिलालेख मिले हैं जिनके छापे (चरबे) काग़ज़ पर सुरक्षित कर लिये गये हैं । यह छापे इस्लामी ख़त्ताती के बहतरीन नमूने हैं, जो हमें इस कला की सेवा करने वाले कलाकारों के क़लम के शाहकारों का पता देते हैं । यह लेख हमें पत्थरों, बर्तनों, सिक्कों, मुहरों आदि पर मिलते हैं ।

भारत के अरबी व फ़ारसी शिलालेखों मेें हमें कूफ़ी, नस्ख़, सुल्स, मोहक़्क़क़, रिक़ा, तुग़रा और नस्तालीक़ नामी मशहूर खु़तूत के अलावा कर्इ ऐसे नमूने भी मिलते हैं जिन्हें इस्लामी ख़त्ताती पर क्षेत्रीय प्रभाव का नतीजा कहा जा सकता हैं । इनमें बंगाल, गुजरात और बिहार के ख़त उल्लेखनीय हैं ।

अरबी व फ़ारसी शिलालेख शाखा, जिसका मुख्य कार्यालय 1958 र्इ. में दिल्ली से नागपुर स्थानतरित हुआ लगभग डेढ़ सदी से पत्थरों और दूसरे माध्यमों पर खुदी इन इबारतों को एक ख़ास तरीके से काग़ज़ पर चरबे (स्टाम्पेज या इंक रबिंग) के रूप में हासिल करके सुरक्षित करने का काम अंजाम दे रही हैं इन कत्बात (शिलालेख) को हासिल करने के बाद पढ़ा जाता हंै जिनमें शासक, तारीख, ज़ुबान, लिपी और किसी ऐतिहासिक घटना का विवरण दर्ज होती हैं । यही हमारे इतिहास और कला के इतिहास का स्त्रोत हैं ।

इस्लामी फ़न-ए-ख़त्ताती की तारीख़ बडी रोचक है । तीसरी और चौथी सदी र्इ. में अरब भ्रमणकारी क़बीले व्यापार के लिये नबतान (र्इराक़ के उत्तर में) के इलाके में जाया करते थे । वहाँ मौजूद आरमीनी लिपी के असर से पनपने वाले नबतानी लिपी से प्रभावित होकर अरबों ने अपनी अरबी लिपी तय्यार करनी शुरू की । हर्रान, उम्मल-जमाल और आस पास के इलाकों में क़ब्रों के सरहाने पर लगे शिलालेखों से हमें अरबी लिपी के विकास के प्रमाण मिलते हैं ।

पाँचवीं सदी र्इ. में र्इराक़ के नगर कूफ़ा में ख़त्तातों और कलाकारों ने एक लिपी की रचना की जो अपने जन्म स्थान की मुनासिबत से ख़त-ए-कूफ़ी कहलार्इ । इस तरह वजूद में आने वाली पहली लिपी थी कूफ़ी । जब पैग़म्बर हज़रत मोहम्म्द (स.) ने इस्लाम के प्रचार के लिये उस समय के राजाओं को पत्र लिखे तो वह उसी लिपी मे लिखे गये थे । उसका प्रारंभिक रूप पढ़ने के लिये बहुत कठिन था । उसका लिखना पढ़ना दोनों मुशिकल थे और अक्षरों पर ऐराब (मात्राएं) भी नहीं लगाए जाते थे ।

पढ़ने और लिखने की आसानी के लिये ख़त-ए-नस्ख़ की रचना की गर्इ । कहा जाता है कि बग़दाद का रहने वाला मोहम्मद इब्न मक़ला (मृ. 940 र्इ.) अपने दौर का बहुत बडा ख़त्तात था उस ने सिध्दांत बनाकर 9 वीं सदी र्इ. के आस पास ख़त-ए-नस्ख़ की रचना की जिसमें अक्षरों की शक्ल गोलाकार या करसिव थी इनकी ऊंचार्इ और चौडार्इ (या घेर) एक दूसरे के बराबर था । ख़त-ए-नस्ख़, ख़त-ए-सुल्स, ख़त-ए-मोह़क़्क़क़ को लोकप्रिय बनाने में अली इब्न-अल-बव्वाब (मृ. 1298 र्इ.) की सेवाएं बहुत अहम रहीं विशेष रूप से बांस का क़लम बनाकर उसे तिरछा तराश कर ख़त्ताती के लिये क़लम के तौर पर प्रयोग करने में याकू़़त अलमुस्तासिमी का योगदान सराहनीय है ।

लिखने और पढ़ने की आसानी की वजह से ख़त-ए-नस्ख़ बहुत जल्द लोकप्रिय हो गया और उस ख़त में शिलालेख और किताबें लिखी जाने लगीं, ख़ास तौर से पवित्र क़ुरआन की हस्त लिखित नक़ल हासिल करने के लिये यह खत बहुत उपयुक्त साबित हुआ । आज भी दुनिया भर में पवित्र कु़रआन की किताबत और छपार्इ इसी ख़त में होती हैं ।

ख़त-ए-रिक़ा अपने रूप के आधार पर ख़त-ए-नस्ख़ से मिलता है । लेकिन इसका झुकाव एक ख़ास कोण से होता है और इस के अक्षर भी एक दूसरे से जुडे जुडे लगते हंै । वैसे इसकी रचना पत्र लिखने के लिये की गर्इ थी ।

इस्लाम का संदेश अब अरब देश से निकल कर र्इरान तक पहँुच रहा था । इस पैग़ाम के साथ इस्लामी ख़त्ताती भी र्इरान पहुँची । फारसी ज़ुबान उस वक़्त तक पहलवी लिपी में लिखी जा रही थी लेकिन इस्लाम के आगमन पर र्इरान ने भी अरबी लिपी को अपना लिया।

नवीं शताब्दी के बाद ख़त-ए-नस्ख़ की लोकप्रियता के साथ साथ रिक़ा, मोहक़्क़क़, तालीक़ और सुल्स खु़तूत वजूद में आए यह अपनी रचना और सिध्दांत के आधार पर एक दूसरे से भिन्न थे ।

नवीं और 10 वीं शताब्दी र्इ. में र्इजाद होने वाला तीसरा अहम ख़त था सुल्स जो 14 वीं शताबदी के आस पास अधिक लोकप्रिय हुआ, जो ज्योमेटरी के उसूलों पर आधारित था। इस की बुनियाद एक तिहार्इ के सिध्दांत पर रखी गर्इ इसी लिये यह सुल्स (एक-तिहार्इ) कहलाया । इसमें गोलाकार या आडे अक्षर खडे अलिफ़ से एक तिहार्इ होते हैं। इसमें एक और विशेषता यह है के अक्षर एक दूसरे के उपर लिखे जा सकते हंै जिस से लिखावट में एक अलंकार और सुंदरता पैदा हो जाती है । अरब और र्इरानी ख़त्तातों ने इस खत में बहुत नाम पैदा किया । खत़-ए-मोहक़्क़क़ अपने रूप में सुल्स से मिलता जुलता है ।

पंद्रहवीं सदी र्इ. में नस्ख़ और तालीक़ के मेल जोल से एक नया ख़त वजूद मे आया जो पिछले तमाम खु़तूत से अधिक सुंदर था । एक ख़त-ए-कुरसी (बैठक रेखा) पर लिखे गए इसके दायरे सुडोल और आडे कशीद तथा खडे अक्षर नोकदार थे । इसके दायरे अंत में नोकदार हो जाने से इनमें एक नर्इ खूबसूरती पैदा हो गर्इ । यह खत र्इरानी मिज़ाज की नज़ाकतों को दर्शाता था । ख़्वाजा मीर अली तबरेज़ी (मृ. 1416 र्इ.) को इस ख़त का रचनाकार माना गया है । उनके शागिर्दो में से कर्इ विख्यात ख़त्तातों ने भारत में भी इस खत को बढ़ावा दिया । मुग़ल काल में यह ख़त भारत में बहुत लोकप्रिय हुआ ।

भारत में इस्लामी ख़त्ताती

12 वीं सदी के अंत में तुर्की सुलतान मोइज़ुद्दीन मोह़म्मद ग़ौरी की जीत के साथ ही भारत में एक नर्इ संस्कृती का आगमन हुआ । धर्म, वास्तुकला, भाषा, साहित्य एवं मुद्रा के साथ साथ इस्लामी ख़त्ताती का रिवाज भी बढ़ने लगा । मसिजदों, मदरसों, महलों, दरगाहों, कि़लों और अन्य जन उपयोगी भवनों पर शिलालेख लगाए जाने लगे । पहले पहल दिल्ली के सुलतानों की सरकारी भाषा अरबी रही लेकिन 14 वीं सदी र्इ. में फ़ारसी को तुग़लक़ वंश के सुलतानों ने सरकारी ज़ुबान की हैसियत प्रदान करदी । धार्मिक इमारतों पर बरकत के लिये पवित्र क़ुरआन की (अरबी) आयतें कूफ़ी, नस्ख़ और सुल्स ख़त में लिखी जातीं और निर्माण की अन्य विवरण जैसे शासक, बनाने वाले एवं अधिकारी का नाम, तारीख व अन्य विवरण फ़ारसी ज़ुबान में ख़त-ए-नस्ख़ में लिखा जाता । फ़रमानों, सिक्कों एवं मुहरों की सजअ (यमक में नाम और उहदा) भी ख़त-ए-नस्ख़ में लिखे जाते । लेकिन इमारतों की पेशानी पर सजावट के लिये ख़त-ए-सुल्स को प्राथमिकता दी जाती । मेहराबों के आज़ू-बाज़ू मिडेलियन के तौर पर ख़त-ए-तुग़रा अपनी पूरी खू़बी के साथ इस्तेमाल होता । ख़त-ए-नस्ख़ के उदाहरणों में कुतुब मीनार पर अरबी इबारत और ख़लजी, तुग़लक़, लोदी और शुरू की मुग़ल इमारतों के शिलालेख शामिल हैं । खत-ए-सुल्स की मिसालों के लिये मुग़ल सम्राट अकबर का मक़बरा सिकंदरा, ताज महल आगरा, जामा मसिजद गोलकुन्डा, इब्रहीम रौज़ा बीजापुर उल्लेखनीय हंै जहाँ ख़त-ए-सुल्स के शिलालेखों ने इन इमारतों को नया हुस्न अता किया । बंगाल के सुलतानों ने ख़त-ए-तुग़रा में स्थानीय प्रभाव से एक नर्इ खू़बी पैदा की जिस से उनकी एक अलग पहचान बन गर्इ 14 वीं एवं 15 वीं शताब्दी के इन शिलालेखों की खत्ताती एक विशेष अंदाज़ की थी जिसे नारियल के पेड़ों के आगे हंस या कशितयाँ तथा 'तीर-कमान की संज्ञा दी गर्इ । यह ख़त्ताती केवल बंगाल के सुलतानों के काल में देखने को मिली । तुग़लक़ सुलतानों के दौर में एक नया ख़त ख़त-ए-बिहारी वजूद में आया जो शिलालेखों में बहुत कम इस्तेमाल हुआ । गुजरात सुलतानों के शिलालेख में एक ख़ास तरह का ख़त ख़त-ए-रिक़ा इस्तेमाल किया गया है ।

दिल्ली के सुलतानों के अलग अलग वन्शों जैसे तुर्क, ममलूक (गुलामान), ख़लजी, तुग़लक़, सय्यद और लोदी के काल में शिलालेख, सिक्के और फ़रमान लिखने के लिये बडे पैमाने पर ख़त-ए-नस्ख़ और विशेष कार्यों के लिये ख़त-ए-सुल्स का प्रयोग हुआ । दिल्ली के सुलतान जब केन्द्र में कमज़ोर हो गये तब क्षेत्रीय सलतनतें वजूद में आर्इं । कश्मीर, बंगाल, मालवा, गुजरात, ख़ानदेश, दक्कन के बहमनी और उनके बाद पाँच प्रान्तीय सलतनतों (बीजापुर के आदिल शाही, गोलकुन्डा के कुतुब शाही, अहमद नगर के निज़ाम शाही, बीदर के बरीद शाही और बरार (अचलपुर) के इमाद शाही) के दौर में ख़त-ए-नस्ख़ और सुल्स बहुत लोकप्रीय रहे । 1526 र्इ. में ज़हीरूद्दीन बाबर ने तैमूरी (मुग़लिया) सलतनत की बुनियाद रखी । बाबर के बेटे हुमायूँ को शेर शाह सूरी ने शिकस्त दी तो उसने र्इरान में पनाह ली । जब हुमायूँ दोबारा दिल्ली के तख़्त पर बैठा तो उसके साथ र्इरान के सफ़वी बादशाहों के दरबार से जुडे कुछ विख्यात ख़त्तात और उनके शिष्य हिन्दुस्तान आए और मुग़ल साम्राज्य में कार्यरत हुए । इनके प्रभाव से ख़त-ए-नस्तालीक़ भारत में प्रचलित हुआ ।

मुग़ल शहंशाहों ने बडे पैमाने पर ख़त-ए-नस्तालीक़ की सरपरस्ती की । शिलालेखों, फ़रमानों, सिक्कों, मुहरों और बर्तनों आदि पर ख़त-ए-नस्तालीक़ में ख़त्ताती की जाने लगी । सिर्फ़ पवित्र कु़रआन की किताबत इस से अनछुर्इ रही के वह आज भी ख़त-ए-नस्ख़ में ही होती हैं.

ख़त-ए-नस्तालीक़ के अदभुत नमूने हमें मुग़लिया दौर की इमारतों पर लगे शिलालेखों में बडे पैमाने पर मिलते हैं जिन में शहिंशाह सलीम (जहांगीर) के कि़ला आग़रा में रखे तख़्त-ए-सियाह के किनारों पर लिखे फ़ारसी अश्आर, अहमदाबाद में शहंशाह शाहजहाँ के काल में निर्मित सराय आज़म खान की पेशानी पर लगे शिलालेख और अन्य जगहों पर शहंशाह औरंगजे़ब और आधुनातन मुग़ल बादशाहों के दौर के शिलालेख उल्लेखनीय हैं । ख़त-ए-नस्तालीक़ को मुग़ल कालीन भारत में लोकप्रीय बनाने में मीर इमाद-अल-हुसैनी के शागिर्द आक़ा अब्दुर्रशीद दैलमी (मृ. 1671 र्इ.) ने बहुत अहम भुमिका अदा की । यहाँ तक कि शहज़ादा दाराशिकोह, शहज़ादा शुजा, शहज़ादा औरंगज़ेब और उसकी बेटी शहज़ादी ज़ैबुनिनसा ने आक़ा से बाक़ायदा ख़त्ताती की तालीम हासिल की । मुग़ल काल के सिक्कों और पांडुलिपियों में हमें ख़त्ताती के बहतरीन नमूने देखने को मिलते हैं । ख़ास तौर से उस दौर की वसलियाँ (दीवार पर लटकार्इ जाने वाली तख़तियाँ), जो मुम्ताज़ महल संग्राहलय लाल कि़ला में सुरक्षित हैं, इस सिलसिले में उल्लेखनीय हैं ।

तुग़रा फ़न-ए-ख़त्ताती का वह सुंदर रूप है जो कला में रूची रखने वाले हर इंसान को मंत्रमुग्ध कर देता है । इसे कमानों की दोनों तरफ़ मिडेलियन, सिक्कों, मुहरों और किताबों में शमसा-निगारी (मुख पृष्ठ) और काग़ज़ पर वसलियों में बहुत प्रयोग किया गया है । सबसे पहले तुर्की की सलतनत-ए-उस्मानिया के शासक सुलतान सुलेमान आज़म उस्मानी ने 16 वीं सदी र्इ. में अपने फ़रमान पर ख़ुद के नाम का तुग़रा बनवाया और अपने फ़रमान में इस्तेमाल किया उसके बाद लगभग हर मुसलमान शासक ने अपने फ़रमान की पेशानी पर तुग़रा-ए-बादशाह एम्बलेम के तौर पर इस्तेमाल किया । हमें तुग़रा-ए-माकूस के भी नमूने मिलते हैं जिन में लेख का अक्स प्रतिबिंब यानी मिरर इफेक्ट भी बनाया जाता है । यह माकूस ख़त्ताती सिक्कों की डार्इ और मुहरों की सजअ लिखने में काम आती है जिस से सीधी इबारत उभरती है.

ख़त-ए-शिकस्ता एक ऐसा ख़त है जो 18 वीं सदी के आस पास वजूद में आया जिसमें अक्षर अपूर्ण, दायरे और कशीद अधुरे छोडे जाते हैं । यह ख़त फ़रमानों की पुश्त पर जि़म्न (एन्डोर्समेन्ट), दस्तावेज़, व्यकितगत स्मरण और पत्र लिखने में इस्तेमाल हुआ है । इस ख़त में शिलालेख नहीं लिखे जाते ।

मुग़ल शासकों और मुसिलम रियासतों के हुकमरानों ने इस कला की सरपरस्ती में अहम भुमिका अदा की हैं । कश्मीर, दिल्ली, लाहौर, लखनऊ, रामपुर और हैद्राबाद में ख़त्ताती के महत्वपूर्ण स्कूल वजूद में आये और इन जगहों पर ख़त्तातों ने जो महान सेवाएं प्रदान की हैं उन्हें सराहा जाना चाहिए ।

फ़न-ए-ख़त्ताती हमारी मूल्यवान धरोहर का हिस्सा है । गुज़रे ज़माने में सुशिक्षित परिवारों के लोग इसे शौकि़या सीखते थे और इसकी सरपरस्ती किया करते थे अब लेखन प्रौध्योगिकी और छपार्इ की तकनीक में विकास ने इस कला के असितत्व पर सवालिया निशान लगा दिये हैं । इस महान कला और इसकी सेवा करने वाले ख़त्तातों के उत्थान के लिये कदम उठाने की आवश्यकता हैं ।

आर्इये हम इस शानदार विरासत को बचाने के लिये प्रतिज्ञा करें और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का साथ दें ।

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